जानिए क्यों मनाया जाता है शिवरात्रि (महाशिवरात्रि )

नमस्कार दोस्तों, आज हम आपको “उत्तराखंड दर्शन” के इस पोस्ट में हिन्दू धर्म में मनाया जाने वाला पवित्र त्यौहार “शिवरात्रि (महाशिवरात्रि ) Shivratri (Mahashivratri)” के बारे में बताने वाले हैं यदि आप जानना चाहते हैं “शिवरात्रि Shivratri (Mahashivratri)” का इतिहास एवं कथा के बारे में तो इस पोस्ट को अंत तक जरुर पढ़े|





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महाशिवरात्रि का इतिहास एवं कथा 

महाशिवरात्रि हिन्दुओं  का एक प्रमुख त्यौहार माना जाता है। यह भगवान शिव का प्रमुख पर्व है। यह त्यौहार पुराणों के अनुसार फाल्गुन माह के कृष्णपक्ष चतुर्दशी को महाशिवरात्रि के रूप में मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि के आरम्भ में इसी दिन मध्यरात्रि को भगवान शिव, ब्रह्मा विष्णु के समक्ष रूद्र के रूप में प्रकट हुए थे| प्रलय की वेला में इसी दिन भगवान शिव नटराज के रूप में ताण्डव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरी नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं, इसलिए इसे महाशिवरात्रि तथा कालरात्रि भी कहा जाता हैं| भगवान शिव को देवों के देव महादेव तथा कालों का काल महाकाल के नाम से भी जाना जाता हैं|

पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन सृष्टि का आरम्भ अग्निलिंग ( जो महादेव का विशालकाय स्वरूप है ) के उदय से हुआ। अधिक तर लोग यह मान्यता रखते है कि इसी दिन भगवान शिव का विवाह देवी पार्वती के साथ हुआ था। साल में होने वाली 12 शिवरात्रियों में से महाशिवरात्रि की सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है

पुराणों के अनुसार-

पुराणों के अनुसार समुंद्र मंथन के समय वासुकि नाग के मुख में भयंकर विष की ज्वालाएं उठी और वे समुद्र के जल में मिश्रित हो विष के रूप में प्रकट हो गई। विष की यह ज्वालाएं संपूर्ण आकाश में फैलकर समस्त चराचर जगत को जलाने लगी। इस भीषण स्थिति से घबरा देव, ऋषि, मुनि भगवान शिव के पास गए तथा भीषण तम स्थिति से बचाने का अनुरोध किया तथा प्रार्थना की कि हे प्रभु इस संकट से बचाइए।




भगवान शिव तो आशुतोष और दानी है। वे तुरंत प्रसन्न हुए तथा तत्काल उस विष को पीकर अपनी योग शक्ति के उसे कंठ में धारण कर लिया तभी से भगवान शिव नीलकंठ कहलाए। उसी समय समुद्र के जल से चंद्र अपनी अमृत किरणों के साथ प्रकट हुए। देवता के अनुरोध पर उस विष की शांति के लिए भगवान शिव ने अपनी ललाट पर चंद्रमा को धारण कर लिया। तब से उनका नाम चंद्रशेखर पड़ा। शिव द्वारा इस महान विपदा को झेलने तथा गरल विष की शांति हेतु उस चंद्रमा की चांदनी में सभी देवों में रात्रि भर शिव की महिमा का गुणगान किया। वह महान रात्रि ही तब से शिवरात्रि के नाम से जानी गई।

महाशिवरात्रि की कथा –

एक बार. ‘एक गांव में एक शिकारी रहता था. पशुओं की हत्या करके वह अपने परिवार को पालता था. वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका. क्रोधवश साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया. संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी. शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा. चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि की कथा भी सुनी. संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की. शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया.अपनी दिनचर्या की भांति वह जंगल में शिकार के लिए निकला, लेकिन दिनभर बंदीगृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था. शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा.बेल-वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढँका हुआ था. शिकारी को उसका पता न चला.पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं. इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए.
एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुंची. शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर जैसे ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, ‘मैं गर्भिणी हूं. शीघ्र ही प्रसव करूँगी. तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है. मैं अपने बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे सामने प्रस्तुत हो जाऊंगी, तब तुम मुझे मार लेना.’ शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी झाड़ियों में लुप्त हो गई.
शिकारी. चिंता में पड़ गया. रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था. तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था. उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर न लगाई, वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, ‘हे पारधी! मैं इन बच्चों को पिता के हवाले करके लौट आऊँगी. इस समय मुझे मत मारिए’ शिकारी हंसा और बोला, ‘सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं. इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं. मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे.






उत्तर में मृगी ने फिर कहा, ‘जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी, इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान माँग रही हूँ. हे पारधी! मेरा विश्वास कर मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ.
मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई. उसने उस मृगी को भी जाने दिया. शिकार के आभाव में बेलवृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था. जो सीधे शिवलिंग में जा रही थी| तभी वहा से एक हष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते से आ रहा था .शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा.तभी वह मृग बोला हे पारधी मुझे मत मरिए में तो अपने बच्चों की खोज में आया हु एक बार में अपने बच्चों से मिल आऊ फिर आप मुझे मार लेना शिकारी हंसा बोला इसे पहले मेंने तुम्हारी पत्नी को जाने दिया झूट बोलकर वो यहाँ से भागी है अभी तक नही आई में कैसे विश्वाश कर लू तुम पर, तब मृग बोला एक बार अपने बच्चो से मिल कर तुरंत लौट आऊंगा तब शिकारी को दया आई उसे भी भेज दिया| उपवास, रात्रि जागरण और शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था. उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था. धनुष और बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गए. भगवान शिव की अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया. वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा.थोड़ी ही देर बाद मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता और सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई. उसके नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गई. उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा कर सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया|

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